Friday, March 28, 2014

पैंसठ वर्षों से छल रहा है,तिरंगे में हाथ खल रहा है

पैंसठ वर्षों से छल रहा है,तिरंगे में हाथ खल रहा है 




भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच की पट्टी का श्वेत धर्म चक्र के साथ शांति और सत्य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है। सफ़ेद पट्टी पर बने चक्र को धर्म चक्र कहते हैं। इस धर्म चक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गति‍शील है और रुकने का अर्थ मृत्यु है। १९७६ में कांग्रेस पार्टी ने अपने दल के ध्वज में हमारे देश के राष्ट्रिय ध्वज से प्रेरित हो इन गौरवशाली तीन रंगों बीच अपने हाथ को जगह दी। परन्तु वर्तमान में छल,कपट,पाखंड,भ्रष्टाचार,अन्याय,अधर्म,अनैतिकता और वंशवाद का प्रतीक बन चूका यह हाथ इन तीन रंगों(तिरंगे) की अस्मिता और गरिमा पर चोट करता नज़र आता है। देशप्रेम की भावना लिए मेरी नज़र जब इस कांग्रेसी झंडे पर पड़ती है तो इन गौरवशाली तीन रंगों(तिरंगे) बीच इस हाथ को देखकर मन द्रवित हो उठता है। तब मेरा यह आंदोलित मन कवितारूप में अपना विरोध प्रकट करता है और मेरा पूर्ण विश्वास है की मेरे इस विरोध से हर देशप्रेमी सहमत होगा और मेरा समर्थन करेगा।


शक्ति और साहस केसरिया
श्वेत धर्म और सत्य-शांति है
पावन हरा वृद्धि,उर्वरता
के प्रतीक है तीन रंग ये
गौरवशाली तीन रंगों पर
छल,कपट,भ्रष्टाचार
वंशवाद,लूट का प्रतीक
नैतिकता का पाठ पढ़ाता
अनैतिकता पर फल रहा है
पैंसठ वर्षों से छल रहा है
तिरंगे में 'हाथ' खल रहा है

धर्मनिरपेक्षता का सारा ठेका
अपने ही सर ले चल रहा है
लोकतंत्र का ढोंग रचाकर
भ्रष्टतंत्र में ढल रहा है

तुष्टिकरण की नीतियों से
बैंक वोट के भर रहा है
गांधी और खादी का योगी
योग नोट के कर रहा है 

गरीब,गरीबी,गरीबों पर ही
राजनीतियां कर रहा है
सपने दावत के देता 
हाथ सूखी रोटी धर रहा है

मॉल प्रथा को जीवित कर
मंडियां सारी निगल रहा है
किसानों के भारत को देखो 
दलालों में ये बदल रहा है

महंगाई की आग में जब 
सारा भारत ही जल रहा है 
३२ रूपए में अमीर बताकर
जले पर नमक मल रहा है 

शांतिपूर्ण आंदोलन को वो 
बर्बरता से कुचल रहा है 
प्रांतवाद का 'राज'नितिज्ञ ही 
जिसके दम पर पल रहा है 

देशभक्तों की सक्रियता पर 
आँख दिखा तनकर रहा है
ए. ओ. ह्यूम का अँधा भक्त 
दशकों से बनकर रहा है

सैंतालीस में आज़ाद हुए
कश्मीर अब तलक टल रहा है
पूर्वोत्तर से कपटी ड्रैगन 
इंच-इंच धरा निगल रहा है

चुनावी बादल छा जाने पर
जनता बीच तो मुखर रहा है
पर सत्ता में आ जाने पर
वादों से ही मुकर रहा है

नई-नई घोषणाएं करता 
मतदाता को छल रहा है 
योजनाएं फाइलों में चलती 
जिन पर दीमक पल रहा है 

बड़े पेड़ के गिर जाने का 
कई जीवन पर असर रहा है 

चौरासी का था एक आरोपी 
सजा समुदाय भुगत रहा है

पैंसठ वर्षों से छल रहा है
तिरंगे में 'हाथ' खल रहा है
               
                               दीपक गुप्ता,MUMBAI

Tuesday, December 31, 2013

Wednesday, August 7, 2013




गरज को अपनी भला उसपे जताएं कैसे 
वो देखता भी नहीं मुड़ के, बुलाएँ कैसे

कही कभी किसी ने छेड़ा वाकया  तेरा
लड़खड़ाते हुए जज़्बात दबाएं कैसे

जाने अनजाने सही पर तेरी चाहत के तले
तुझसे हासिल हुए जो दर्द बताएं कैसे

मेरे ज़ख्मों पे तेरे हमदर्दी भरे धागों के
अनगिनत टांकें है जो उसको गिनाएं कैसे

हम जब चले थे साथ ऐसी उन यादों के बिना
अकेले जिंदगी की सैर पर जाएँ कैसे

तू सतह पर कहीं रहे तो ढूंढ़ लें तुझे, लेकिन
दिल की गहराई से खंगाल कर लाएं कैसे 


                                                     गुप्ता  दीपक

 

Tuesday, July 23, 2013



दूर से .....वो चिड़िया मेरी उपस्थिति में मेरे द्वारा फेंके गए दानों को बस देख भर रही है ...वह चाह रही है की मै कुछ सेकेण्ड अपनी नज़र उस पर से हटा दूँ ....पर उसे दाना खाते देखने के लिए ही तो मैंने वे फेंके थे ...तो मै क्यूँ नज़र हटाऊँ? ...मै नहीं हटाऊँगा ...हद होती है ...सृष्टी के निर्माण से हम तुम साथ हैं...बावजूद इसके हमारी आहट भर से तुम असहज हो जाती हो ... क्या मानवता इतनी अविश्वसनीय हो गयी है?...  स्नेह,प्रेम,करुणा ये हममें नहीं रहे ?...संवेदना नहीं रही ? और फिर दाने तो मैंने खुले आसमान के तले अपने लॉन में बिछाए हैं और आस-पास कोई जाल भी नहीं,न ही तुम्हारे और मेरे सिवा कोई तीसरा, और मै तुमसे कुछ फिट की दूरी पर भी हूँ ....इतने पर भी तुम्हारा इस तरह असहज होना मेरी कुछ पल की ख़ुशी को मायूसी में बदल रहा है ...और ये तुम्हारी दूसरी चिड़ियों को अपनी चहचहाहट से सचेत करने की कोशिश मुझे खल रही है ...सभीं तुम्हारे इशारों पर रुकीं है ...  उनका तुम पर ये विश्वास तुम्हारे उनका लीडर होने की पुष्टि करता है ...हाँ,माना कि ऐसे स्वाभाविक गुण मानवजाति में बहोत कम देखे गए हैं ...पर सभी तो एक जैसे नहीं होते ...कम से कम मुझे तो तुम भीड़ में शामिल मत करो ...इतना तो सोचो कि अगर मुझे तुम्हे कुछ नुकसान पहुंचाना होता तो इस तरह तुम्हारे लिए दाने क्यूँ बिखेरता ...बटेर से सीधे तुम पर निशाना साधता ...
                                                                       
                                                                                                                                          जारी है ......

Thursday, July 18, 2013

,....अगर है



ये तो बस एक औपचारिकता भर है 
मुझको तेरा पूछना, क्या हाल खबर है


मुझ पर तेरा नजरिया बदला हुआ गर है 
मुमकिन है ज़माने की बातों का असर है 


फ़िक्र नहीं ये की रिश्तों में ठहर है 
वक़्त के साथ बदलने का भी डर है 


कल तक रही हमारी एक डगर है 
पर अब चलने को अलग राहगुज़र है 


गिर गया आदमी तुममें किस कदर है 
शर्म कर लो अब तो कुछ,....अगर है 

                                 .............................दीपक गुप्ता 

कब तक

ऊल जुलूल लिखने को
असमय उंडेल देने को
उतावला नहीं करते मुझे
मेरे शब्दकोष 
उभरते नहीं भावनाओं सहित तब तक 
सटीक न हो जब तक 
लिखा जो मैंने अब तक 
जज़्बात पहुंचे सब तक 
पता नहीं उस रब तक 
पहुंचेगा कभी कब तक 

                                                                       दीपक गुप्ता